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कपास की फसल को गुलाबी सुंडी से बचाने के लिए किसान कर रहे हैं इस तकनीकी का प्रयोग

कपास की फसल को गुलाबी सुंडी से बचाने के लिए किसान कर रहे हैं इस तकनीकी का प्रयोग

अच्छा मुनाफा मिलने के बाद इस बार बढ़ रहा है कपास की खेती का रकबा

मुंबई। महाराष्ट्र में इस सीजन कपास की खेती का रकबा बढ़ना तय है। क्योंकि बीते साल कपास की खेती किसानों के लिए सफेद सोना साबित हुई थी। 

कपास से किसानों ने अच्छा मुनाफा कमाया था, जिसके चलते इस सीजन कपास की खेती करने वाले किसानों की संख्या बढ़ रही है। लेकिन कपास के किसानों के किये गुलाबी सुंडी कीट सबसे बड़ा खतरा बना हुआ है। 

पहले भी पिंक बॉलवर्म (Pink bollworm) की बढ़ती घटनाओं के कारण कपास उत्पादन घटता रहा है। इस खतरनाक कीट से अन्य दूसरी फसलें भी प्रभावित होती हैं। 

कपास के लिए सबसे खतरनाक बने इस गुलाबी सुंडी कीट से बचाव के लिए किसान मेटिंग डिस्टर्बन्स तकनीकी (Mating disruption (MD)  pest management technique) का उपयोग कर रहे हैं। 

यह तकनीकी कपास का उत्पादन करने वाले महाराष्ट्र के 23 जिलों में लागू हो चुकी है। इसके लिए एक निजी कंपनी के साथ समझौता किया गया है। और इसकी शुरुआत खरीफ सीजन से होने जा रही है। 

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समझें क्या है मेटिंग डिस्टर्बन्स तकनीक प्रक्रिया

- कपास की फसल के साथ-साथ अन्य फसलों में गुलाबी सुंडी के प्रकोप को रोकने के लिए सल्फर रसायनों का उपयोग किया जाएगा। 

गंधक को पौधे के एक विशिष्ट भाग में लगाने के बाद नर कीट मादा कीट की गंध से आकर्षित होंगे और बार-बार आने के बावजूद वे वापस लौट आएंगे। क्योंकि उन्हें मादा पतंग नहीं मिलेगी। 

ऐसे में वे एक दूसरे के संपर्क में नहीं आ पाएंगे और अंडे देने की प्रक्रिया में रुकावट के कारण नए कीटों का उत्पादन नहीं होगा। इससे कीटों के अत्यधिक बढ़ते प्रकोप को रोका जा सकता है। 

इस वर्ष कपास उत्पादन करने वाले 23 जिलों में यह प्रयोग शुरू किया जा रहा है। कपास अनुसंधान संस्थान के निदेशक डॉ कृष्ण कुमार के बताए अनुसार यह प्रक्रिया काफी जटिल है, लेकिन इसे प्रभावी माना जाता है। इससे किसानों में कुछ सन्तोष दिखाई दे रहा है।

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गुलाबी सुंडी के प्रकोप के चलते कपास की खेती छोड़ चुके थे किसान

- बीते कई वर्षों से कपास की खेती में गुलाबी सुंडी कीट का भारी प्रकोप रहा है। पिंक बॉलवर्म के प्रकोप के चलते किसान कपास की खेती छोड़ चुके थे। लेकिन पिछले सीजन में कपास की खेती ने किसानों की बल्ले-बल्ले कर दी। 

बाजार में कपास का अच्छा भाव मिला और किसानों ने अच्छा मुनाफा कमाया। यही कारण है कि इस बार कपास का रकबा बढ़ने जा रहा है।

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कपास के साथ-साथ सोयाबीन का बढ़ेगा रकबा

- महाराष्ट्र में कपास की खेती के साथ-साथ सोयाबीन का रकबा बढ़ना तय है। कृषि विभाग भी इसकी भविष्यवाणी कर चुका है। पिछले साल कपास और सोयाबीन से किसानों को अच्छा मुनाफा मिला था। 

इसके अलावा राज्य में बारिश के सक्रिय होने के कारण खरीफ की बुवाई में तेजी आई है। दलहन की जगह किसान कपास और सोयाबीन की खेती पर जोर दे रहे हैं। ------ लोकेन्द्र नरवार

जानिए कीट नियंत्रण और कीट प्रबंधन में क्या-क्या अंतर होते हैं

जानिए कीट नियंत्रण और कीट प्रबंधन में क्या-क्या अंतर होते हैं

आपकी जानकारी के लिए बतादें कि कीट नियंत्रण एक उपचार है। लेकिन कीट प्रबंधन कीट संक्रमण से पूर्व ही किया जा सकता है। इस लेख में हमने कीट नियंत्रण एवं कीट प्रबंधन के मध्य अंतराल को विस्तृत रूप से बताया है। खेती-बाड़ी में आम तौर पर दो शब्द कीट नियंत्रण एवं कीट प्रबंधन सुनने को मिलता है। परंतु, क्या आपको पता है, कि इन दोनों में कोई खास ज्यादा अंतर नहीं होता है। कीट से जुड़े इन दोनों ही शब्दों का अर्थ काफी बड़ा होता है। क्योंकि इनके इस्तेमाल से आपकी फसल एवं कृषि क्षेत्र पर भी इसका असर पड़ता है। अब ऐसी स्थिति में हम आपके लिए इन दोनों में अंतराल समेत इनके महत्व के संदर्भ में जानकारी देने वाले हैं।

कीट नियंत्रण क्या होता है

कीट नियंत्रण कीट में शामिल किस्मों का प्रबंधन है। यह खेत में उपस्थित अवांछित कीड़ों को कम करने, प्रबंधित करने और नियंत्रित करने व हटाने की प्रक्रिया है। कीट नियंत्रण के दृष्टिकोण में एकीकृत कीट प्रबंधन (आईपीएम) शम्मिलित हो सकता है। खेती किसानी में कीटों को सांस्कृतिक, जैविक, रासायनिक और यांत्रिक तरीकों से संरक्षण किया जाता है। बिजाई से पूर्व खेत की जुताई एवं मिट्टी की जुताई करने से कीटों का भार घटता है। वहीं, फसल चक्रण से निरंतर होने वाले कीट प्रकोप को कम करने में काफी सहयोग मिलता है। कीट नियंत्रण तकनीक में फसलों का निरीक्षण, कीटनाशकों का इस्तेमाल एवं सफाई जैसी विभिन्न चीजें शम्मिलित हैं।

आखिर कीट नियंत्रण का महत्व क्या होता है

मानव स्वास्थ्य का संरक्षण: यह मच्छरों, टिक्स एवं कृन्तकों जैसे कीटों द्वारा होने वाली बीमारियों के प्रकोप को कम कर मानव स्वास्थ्य की रक्षा करने में सहयोग करता है। संपत्ति का संरक्षण: कीटों को नियंत्रित करके फसलों, संरचनाओं एवं संग्रहीत उत्पादों को क्षति से बचाता है। संपत्ति को संक्रमण से जुड़े विनाश से बचाता है। खाद्य सुरक्षा: कृषि प्रणाली में फसल पैदावार को बनाए रखना एवं भोजन की सुरक्षा और गुणवत्ता सुनिश्चित करने के लिए कीट नियंत्रण उपाय जरूरी है। आर्थिक प्रभाव: प्रभावी कीट नियंत्रण क्षतिग्रस्त फसलों एवं संपत्ति के नुकसान की वजह से होने वाली वित्तीय हानियों को रोक सकता है।

कीट प्रबंधन होता क्या है

कीट प्रबंधन को अवांछित कीटों का खात्मा करने एवं हटाने की एक विधि के तौर पर परिभाषित किया गया है, जिसमें रासायनिक उपचारों का इस्तेमाल शम्मिलित हो सकता है अथवा नहीं भी हो सकता है। प्रभावी कीट प्रबंधन का उद्देश्य कीटों की तादात को एक सीमा तक कम करना है।

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कीट प्रबंधन का महत्व क्या होता है

रसायनों पर कम निर्भरता: यह जैविक नियंत्रण एवं सांस्कृतिक प्रथाओं जैसे वैकल्पिक तरीकों के इस्तेमाल पर बल देता है। रासायनिक कीटनाशकों पर निर्भरता को कम करने के साथ उनके संभावित नकारात्मक प्रभावों को भी कम करता है। पर्यावरणीय स्थिरता: कीट प्रबंधन पारिस्थितिक संतुलन बरकरार रखने एवं स्थिरता को प्रोत्साहन देने की कोशिश करता है। एकीकृत कीट प्रबंधन: कीट प्रबंधन में निगरानी, ​​निवारक उपाय एवं जरूरत पड़ने पर कीटनाशकों का लक्षित इस्तेमाल शम्मिलित है, जिससे ज्यादा प्रभावशाली एवं टिकाऊ कीट नियंत्रण होता है। दीर्घकालिक रोकथाम: कीट प्रबंधन का उद्देश्य कीट संबंधित परेशानियों की मूल वजहों को दूर करना है। साथ ही, आने वाले समय में होने वाले संक्रमण को न्यूनतम करने के लिए निवारक उपायों को इस्तेमाल करना है, जिससे निरंतर एवं गहन कीट नियंत्रण उपचार की जरूरतें कम हो जाती हैं।

कीट नियंत्रण और कीट प्रबंधन में फर्क बताने हेतु निम्नलिखित बिंदु

लक्ष्य के आधार पर अंतर

कीट नियंत्रण- कई सारे तरीकों से कीटों का खत्मा करना अथवा नियंत्रित करना कीट प्रबंधन- पर्यावरण एवं मानव स्वास्थ्य को होने वाली हानि को कम करते हुए अथवा उनकों ध्यान में रखते हुए कीटों की रोकथाम करना

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दृष्टिकोण के आधार पर अंतर

कीट नियंत्रण- कीटों के तत्काल उन्मूलन पर ध्यान केंद्रित करना कीट प्रबंधन- लम्बे समय तक नियंत्रण एवं रोकथाम रणनीतियों पर बल देना

तरीकों के आधार पर अंतर

कीट नियंत्रण- कीटनाशकों पर काफी ज्यादा निर्भरता कीट प्रबंधन- जैविक नियंत्रण, सांस्कृतिक प्रथाओं एवं रासायनिक नियंत्रण समेत कई सारी तकनीकों का उपयोग करना

दायरे के आधार पर अंतर

कीट नियंत्रण- विशेष रूप से वर्तमान में कीट संक्रमणों को कम करना अथवा उनका खत्मा करना कीट प्रबंधन- वर्तमान संक्रमण एवं भावी संभावित खतरों दोनों का खत्मा अथवा कम करना।

वहनीयता के आधार पर अंतर

कीट नियंत्रण- पर्यावरण एवं गैर-लक्षित किस्मों पर नकारात्मक असर पड़ सकता है। कीट प्रबंधन- पारिस्थितिक संतुलन बरकरार रखने एवं स्थिरता को प्रोत्साहन देने की कोशिश करता है।

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एकीकृत कीट प्रबंधन (आईपीएम) के आधार पर अंतर

कीट नियंत्रण- स्वाभाविक रूप से एक आईपीएम दृष्टिकोण नहीं है। कीट प्रबंधन- आम तौर पर सभी उपलब्ध कीट प्रबंधन तकनीकों पर विचार करते हुए आईपीएम के सिद्धांतों का पालन करता है।

पारिस्थितिकी तंत्र के आधार पर अंतर

कीट नियंत्रण- समस्त पारिस्थितिकी तंत्र के लिए कम विचार कीट प्रबंधन- पारिस्थितिक संदर्भ एवं पारिस्थितिकी तंत्र पर कीट प्रबंधन क्रियाओं के प्रभाव पर विचार करना

निगरानी के आधार पर अंतर

कीट नियंत्रण- सीमित निगरानी या कुछ निगरानी प्रणाली पर ध्यान कीट प्रबंधन- कीटों का पता लगाने और प्रबंधन रणनीतियों की प्रभावशीलता का आकलन करने के लिए निरंतर निगरानी और नियमित निरीक्षण पर निर्भरता।
खरीफ सीजन की तिलहन फसल में लगने वाले रोग एवं इनका इलाज

खरीफ सीजन की तिलहन फसल में लगने वाले रोग एवं इनका इलाज

तिल की खेती से बेहतरीन आमदनी के लिए इसमें लगने वाली बीमारियों को काबू करना बहुत आवश्यक होता है। जानें किस ढ़ंग से आप अपनी फसल का संरक्षण कर सकते हैं। भारत में तिल की खेती बेहद दीर्घ काल से की जाती रही है। यह एक तिलहनी फसल की श्रेणी में आती है, जिसे खरीफ के सीजन में पैदा किया जाता है। तिल का इस्तेमाल विशेष रुप से तेल निकालने के लिए किया जाता है, जो खानें में काफी ज्यादा पौष्टिक माना जाता है। तिलहन के पौधे एक से डेढ़ मीटर तक लंबे होते हैं और इसके फूलों का का रंग सफेद एवं बैंगनी होता है। आज इस लेख में हम आपको इसकी खेती के अंतर्गत लगने वाले रोगों और उनसे संरक्षण के तरीकों के विषय में बताने जा रहे हैं।

तिलहन की फसल में लगने वाले प्रमुख रोग कौन-कौन से हैं

तिल की फसल में लगने वाला गाल मक्खी रोग

यह एक कीट जनित रोग माना जाता है। इसके लगने से पौधे के तनों में सड़न होने लगती है। यह कीट इतना खतरनाक होता है, कि यह आहिस्ते-आहिस्ते संपूर्ण पेड़ को ही खा जाता है। इससे संरक्षण के लिए किसान भाई पेड़ पर मोनोक्रोटोफास का छिड़काव 15 से 20 दिन के अंतराल पर करते रहें। ये भी पढ़े: तिल की खेती से संबंधित महत्वपूर्ण जानकारी

तिल फसल में लगने वाला पत्ती छेदक रोग

यह रोग लगने से तिल के पौधे की पत्तियों में छेद होने शुरू हो जाते हैं। इन कीटों का संक्रमण काफी ज्यादा होता है। इनका रंग हरा होता है, इन कीटों के शरीर पर हल्की हरी और सफेद रंग की धारियां बनी होती हैं। यदि इनका प्रबंधन समुचित समय पर नहीं किया गया तो यह बहुत ही कम वक्त में पूरे तिल की फसल को चौपट कर सकते हैं। इन कीटों से संरक्षण के लिए आप पौधों पर मोनोक्रोटोफास की दवा का छिड़काव भी कर सकते हैं।

तिल की फसल में लगने वाला फिलोड़ी रोग

फिलोड़ी का रोग पौधे के फूलों पर लगता है। इससे तिल के फूलों का रंग पीला पड़ना शुरू हो जाता है और समय के साथ यह झड़ने शुरू हो जाते हैं। इससे संरक्षण हेतु पौधों पर मैटासिस्टाक्स का छिड़काव किया जाता है। ये भी पढ़े: तिल की खेती कैसे की जाती है जाने इसके बारे में सम्पूर्ण जानकारी

तिल की फसल में लगने वाला फली छेदक रोग

इन कीटों की मादाएं अंडे पौधों के कोमल हिस्सों जैसे कि पत्तियों और फूलों पर देती हैं। यह भूरे, काले, पीले, हरे, गुलाबी, संतरी तथा काले रंग के पैटर्न में विभिन्न प्रकार के होते हैं। यह कीट कोमल पत्तियों, फूलों एवं इनकी फलियों को खा जाते हैं। इनके संरक्षण के लिए पौधों पर क्यूनालफॉस नामक कीटनाशक का छिड़काव करना चाहिए।
तिल की फसल में लगने वाले प्रमुख रोग और उनका नियंत्रण 

तिल की फसल में लगने वाले प्रमुख रोग और उनका नियंत्रण 

भारत में तिल को तिलहनी फसल के रूप में उगाया जाता है। तिल के तेल का उपयोग कई चीजों में किया जाता है। भारत मे तिल का उत्पादन उत्तर प्रदेश, राजस्थान, मध्य प्रदेश और गुजरात में अधिक होता है। तिल की खेती के लिए समतल भूमि और कम पानी की आवश्यकता होती है। तिल की खेती कई रोगों से ग्रस्त होती है जिसके कारण फसल की उपज बहुत कमी आती है जिससे किसानों को आर्थिक हानि होती है इसलिये हमें समय-समय पर अच्छा उत्पादन लेने के लिये इन रोगों के नियंत्रण के लिये उपाय करते रहना चाहिये। इस लेख में हम आपको तिल के प्रमुख रोगों और उनको नियंत्रण करने के उपायों के बारे में बातएंगे जिससे की आप समय से फसल में रोग नियंत्रण कर सकते है।       

तिल में लगने वाले रोग एवं उनके उपाय                              

   1.अल्टरनेरिया पत्ति धब्बा रोग 

  • इस रोग से संक्रमित पत्तियों पर संकेंद्रित वलय वाले छोटे, गोलाकार लाल-भूरे रंग के धब्बे बन जाते है। 
  • इसके अलावा डंठल, तने और कैप्सूल पर गहरे भूरे रंग के घाव हो जाते है। जैसे - जैसे रोग आगे बढ़ता है पत्तियों  झुलसना कर झड़ना शुरू हो जाती है। फलियों पर संक्रमण होने पर बीज सिकुड़े हुए बनते है और फलियां फटना शुरू हो जाती है।  


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रोग नियंत्रण के उपाय 

  • जिस खेत में ये रोग आता हो उसमें कम से कम 2 साल तक फसलचक्र अपनायें। 
  • इस रोग से बचाव के लिए बुवाई के लिए प्रभावित व स्वस्थ बीज का चयन करना चाहिये। 
  • बुवाई से पहले बीज उपचार करना चाहिए जिसके लिये ट्राइकोडर्मा विरडी 5 ग्राम प्रति किग्रा. बीज दर से उपयोग करना चाहिये। 
  • खड़ी फसल में रोग को नियंत्रित करने के लिए मैंकोजेब की 400 ग्राम प्रति मात्रा की प्रति एकड़ स्प्रे  करें।

   2. फायलोडी रोग 

  • इस रोग को फायलोडी रोग के नाम से भी जाना जाता है यह रोग माईकोप्लाज्मा के द्वारा होता है एवं इस रोग में पुष्प के विभिन्न भाग विकृत होकर पत्तियों के समान हो जाते हैं। संक्रमित पौधों में पत्तियाँ गुच्छों में छोटी-छोटी दिखाई देती हैं और पौधों की वृद्धि रुक जाती है। ये रोग एक पौधे से दूसरे पौधे में जैसिड द्वारा फैलाया जाता है। 

रोग नियंत्रण के उपाय 

  • सबसे पहले इस रोग वेक्टर को नियंत्रित करने के लिए, एनएसकेई @ 5% या नीम तेल @ 2% का छिड़काव करें जिससे की संक्रमित पौधे से रोग स्वस्थ पौधे में ना फैले और पैदावर हानि ना हो।  
  • इमिडाक्लोप्रिड 600 एफएस @ 7.5 मि.ली./कि.ग्रा. की दर से बीज उपचार करें। 
  • खड़ी फसल में रोग का संक्रमण दिखाई देने पर वेक्टर को नियंत्रण करे के लिए क्विनालफोस 25 ईसी 800 मिली/एकड़ या थियामेथोक्साम 25डब्ल्यूजी @ 40 ग्राम/एकड़ या इमिडाक्लोप्रिड 17.8 एसएल @ 40 मिली/एकड़ का छिड़काव करें।
  • तिल के साथ अरहर की खेती करके इस रोग को नियंत्रित किया जा सकता है।    


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   3.जड़ गलन रोग  

  • इस रोग के लक्षण सबसे पहले पुरानी पत्तियों पर दिखाई देते है। पत्तियों का पीला होकर गिरना इस रोग के प्रमुख लक्षण है। संक्रमित पौधे की जड़े पूरी तरह से गल जाती है और पौधे को आसानी से मिट्टी से निकाला जा सकता है। इस रोग से संक्रमित पौधों की फलियाँ समय से पहले खुल जाती हैं।                                                                   

रोग नियंत्रण के उपाय  

  • जिस खेत में रोग का अधिक प्रकोप होता हो उस खेत में तिल की फसल ना लगाए। 
  • रोग से बचाव के लिए समय से फसल  बुवाई करें। 
  • खड़ी फसल में रोग को नियंत्रित करने के लिए कार्बेन्डाजिम 50 WP को 1 ग्राम प्रति लीटर की दर से पौधे की जड़ो में डालें। 

   4.पाउडरी मिल्डयू 

  • ये रोग कवक के द्वारा होता है इस रोग के लक्षण पत्तियों पर दिखाई देते हैं। इस रोग में पौधों की पत्तियों के ऊपरी सतह पर पाउडर जैसा सफेद चूर्ण दिखाई देता है। इस रोग का संक्रमण फसल में 45 दिन से लेकर फसल पकने तक होता है। 

रोग नियंत्रण के उपाय   

  • रोग के नियंत्रण के लिए wettable सल्फर 80 WP 500 ग्राम को प्रति एकड़ हर 15 दिनों में  संक्रमित फसल में डालें। इसके आलावा इस रोग को नियंत्रित करने के लिए 10 किलोग्राम sulphur dust  को प्रति एकड़ के हिसाब से में डालें।       

   5. फाइटोफ्थोरा अंगमारी

  • यह मुख्यतः फाइटोफ्थोरा पैरसिटिका नामक कवक से होता है सभी आयु के पौधों पर इसका हमला हो सकता है। इस रोग के लक्षण पौधों की पत्तियो एवं तनों पर दिखाई देते हैं। इस रोग में प्रारम्भ में पत्तियों पर छोटे भूरे रंग के शुष्क धब्बे दिखाई देते हैं ये धब्बे बड़े होकर पत्तियों को झुलसा देते हैं तथा ये धब्बे बाद में काले रंग के हो जाते हैं। रोग ज्यादा फैलने से पौधा मर जाता है। 


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रोग नियंत्रण के उपाय   

  • रोग से बचाव के लिए लगातार एक खेत में तिल की बुवाई ना करें। 
  • खड़ी फसल में रोग दिखने पर रिडोमिल 5 ग्राम प्रति लीटर पानी का घोल बनाकर 10 दिन के अन्तराल पर छिड़काव करना चाहिए। 
इस लेख में आपने तिल के प्रमुख रोगों और इनकी रोकथाम के बारे में जाना । मेरी खेती आपको खेतीबाड़ी और ट्रैक्टर मशीनरी से जुड़ी सम्पूर्ण जानकारी प्रोवाइड करवाती है। अगर आप खेतीबाड़ी से जुड़ी वीडियोस देखना चाहते हो तो हमारे यूट्यूब चैनल मेरी खेती पर जा के देख सकते है।  
येलो मोजेक वायरस की वजह से महाराष्ट्र में पपीते की खेती को भारी नुकसान

येलो मोजेक वायरस की वजह से महाराष्ट्र में पपीते की खेती को भारी नुकसान

आपकी जानकारी के लिए बतादें कि नंदुरबार जिला महाराष्ट्र का सबसे बड़ा पपीता उत्पादक जिला माना जाता है। यहां लगभग 3000 हेक्टेयर से ज्यादा रकबे में पपीते के बाग इस वायरस की चपेट में हैं। इसकी वजह से किसानों का परिश्रम और लाखों रुपये की लागत बर्बाद हो गई है। किसानों ने सरकार से मांगा मुआवजा। सोयाबीन की खेती को बर्बाद करने के पश्चात फिलहाल येलो मोजेक वायरस का प्रकोप पपीते की खेती पर देखने को मिल रहा है। इसकी वजह से पपीता की खेती करने वाले किसान काफी संकट में हैं। इस वायरस ने एकमात्र नंदुरबार जनपद में 3 हजार हेक्टेयर से ज्यादा रकबे में पपीते के बागों को प्रभावित किया है, इससे किसानों की मेहनत और लाखों रुपये की लागत बर्बाद हो चुकी है। महाराष्ट्र के विभिन्न जिलों में देखा जा रहा है, कि मोजेक वायरस ने सोयाबीन के बाद पपीते की फसल को बर्बाद किया है, जिनमें नंदुरबार जिला भी शामिल है। जिले में पपीते के काफी बगीचे मोजेक वायरस की वजह से नष्ट होने के कगार पर हैं।

सरकार ने मोजेक वायरस से क्षतिग्रस्त सोयाबीन किसानों की मदद की थी

बतादें, कि जिस प्रकार राज्य सरकार ने मोजेक वायरस की वजह से सोयाबीन किसानों को हुए नुकसान के लिए सहायता देने का वादा किया था। वर्तमान में उसी प्रकार पपीता किसानों को भी सरकार से सहयोग की आशा है। महाराष्ट्र एक प्रमुख फल उत्पादक राज्य है। परंतु, उसकी खेती करने वालों की समस्याएं कम होने का नाम ही नहीं ले रही हैं। इस वर्ष किसानों को अंगूर का कोई खास भाव नहीं मिला है। बांग्लादेश की नीतियों की वजह से एक्सपोर्ट प्रभावित होने से संतरे की कीमत गिर गई है। अब पपीते पर प्रकृति की मार पड़ रही है।

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पपीते की खेती में कौन-सी समस्या सामने आई है

पपीते पर लगने वाले विषाणुजनित रोगों की वजह से उसके पेड़ों की पत्तियां शीघ्र गिर जाती हैं। शीर्ष पर पत्तियां सिकुड़ जाती हैं, इस वजह से फल धूप से क्षतिग्रस्त हो जाते हैं। व्यापारी ऐसे फलों को नहीं खरीदने से इंकार कर देते हैं, जिले में 3000 हेक्टेयर से ज्यादा क्षेत्रफल में पपीता इस मोज़ेक वायरस से अत्यधिक प्रभावित पाया गया है। हालांकि, किसानों द्वारा इस पर नियंत्रण पाने के लिए भिन्न-भिन्न प्रकार के उपाय किए जा रहे हैं। परंतु, पपीते पर संकट दूर होता नहीं दिख रहा है। इसलिए किसानों की मांग है, कि जिले को सूखा घोषित कर सभी किसानों को तत्काल मदद देने की घोषणा की जाए।

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पपीता पर रिसर्च सेंटर स्थापना की आवश्यकता

नंदुरबार जिला महाराष्ट्र का सबसे बड़ा पपीता उत्पादक जिला माना जाता है। प्रत्येक वर्ष पपीते की फसल विभिन्न बीमारियों से प्रभावित होती है। परंतु, पपीते पर शोध करने के लिए राज्य में कोई पपीता अनुसंधान केंद्र नहीं है। इस वजह से केंद्र और राज्य सरकारों के लिए यह जरूरी है, कि वे नंदुरबार में पपीता अनुसंधान केंद्र शुरू करें और पपीते को प्रभावित करने वाली विभिन्न बीमारियों पर शोध करके उस पर नियंत्रण करें, जिससे किसानों की मेहनत बेकार न जाए।

येलो मोजेक रोग के क्या-क्या लक्षण हैं

येलो मोजेक रोग मुख्य तौर पर सोयाबीन में लगता है। इसकी वजह से पत्तियों की मुख्य शिराओं के पास पीले धब्बे पड़ जाते हैं। ये पीले धब्बे बिखरे हुए अवस्था में दिखाई देते हैं। जैसे-जैसे पत्तियां बढ़ती हैं, उन पर भूरे रंग के धब्बे दिखाई देने लगते हैं। कभी-कभी भारी संक्रमण की वजह पत्तियां सिकुड़ और मुरझा जाती हैं। इसकी वजह से उत्पादन प्रभावित हो जाता है।

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येलो मोजेक रोग की रोकथाम का उपाय

कृषि विभाग ने येलो मोजेक रोग को पूरी तरह खत्म करने के लिए रोगग्रस्त पेड़ों को उखाड़कर जमीन में गाड़ने या नीला व पीला जाल लगाने का उपाय बताया है। इस रोग की वजह से उत्पादकता 30 से 90 प्रतिशत तक कम हो जाती है। इसके चलते कृषि विभाग ने किसानों से समय रहते सावधानी बरतने की अपील की है।